Monday, July 11, 2016

भारत ने दिया नेपालको कडा चेतावनी मोदि सरकार ने भारत के बारेमे अनाब सनाब नबोले नेपाल वर्न ..........?

जनकपुर: 
२७/३/२०७३

भारत का अहम पड़ोसी देश नेपाल के नागरिकों ने अपनी निर्वाचित संविधान सभा  द्वारा जिस संविधान को अंगीकार किया है उसे बनाने में 6 साल से अधिक का समय लगा है और इस दौरान 2 बार संविधान सभा का निर्वाचन करना पड़ा। 20 सितंबर 2015 को नेपाल ने अपने को “संप्रभुतासम्पन्न, लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य” घोषित करते हुए अपने देश के नागरिकों को बहुत तरह के अधिकार दिए हैं जिससे नेपाल के अधिकतर आवाम में एक ख़ुशी और संतुष्ठी का भाव है वहीं नेपाल के तराई के हिस्से में रहने वाली मधेशी सहित कुछ जनजातियां अपने को ठगा महसूस कर रही है। जब से नेपाल में नया संविधान लागू हुआ है भारत के साथ उसके सम्बन्ध भी बिगड़ते ही जा रहे हैं। भारत ने खुल कर नेपाल के मधेशी लोगों की मांगों का समर्थन किया है। 

नए संविधान के लागू होने के दिन से ही नेपाल में आन्दोलन और विरोध प्रदर्शन का दौर जारी है जिससे एक ओर जहां पुलिस और आमजन के बीच तनाव व्याप्त है वहीं दूसरी ओर भारत से जाने वाली पेट्रोलियम पदार्थ व अन्य आवश्यक सामग्री की आपूर्ति बाधित है। इससे नेपाली आवाम को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

इन सब का असर भारत-नेपाल संबंधों पर भी पड़ रहा है। नेपाल का मानना है कि भारत ने उसके संविधान का उस प्रकार स्वागत नहीं किया जिस प्रकार एक पड़ोसी सम्प्रभु राष्ट्र के साथ करना चाहिए। भारत की प्रतिक्रिया नेपाल में रह रहे भारतीय मूल के लोगों और संविधान के कुछ प्रावधानों से नाखुश वर्गों के हितों को ध्यान में रखकर की गयी जान पड़ती है। इसका असर यह हुआ है की नेपाल में भारत विरोधी दल और संगठन आज भारत के विरोध में आवाज़ बुलंद कर रहे हैं।

एक तरह से यह भारत जैसे सुलझे हुए लोकतान्त्रिक देश की कूटनीतिक विफलता के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि नेपाल में किसी भी तरह से अशांति नेपाल से लगे बिहार, उत्तरप्रदेश ही नहीं बल्कि पुरे देश के लिए समस्या की बात हो सकती है खास कर व्यापारिक और सांस्कृतिक हित काफी प्रभावित होने की संभावना है। इस मौके का फायदा पड़ोसी देश चीन भी उठाने से बाज़ नहीं आ रहा।

कूटनीतिक तौर पर देखा जाय तो भारत को अभी अपनी निष्पक्ष भूमिका निभाते हुए इसे पूर्णरूप से नेपाल का आंतरिक मामला मानकर अभी कुछ दिन बिल्कुल चुप होकर देखना चाहिए क्योंकि नेपाल की भारत पर निर्भरता इस रूप में है कि  नेपाली सरकार और वहां की जनता भारत की कई क्षेत्रों में सहयोग की जरूरत होती है और इसलिए हमारे आतंरिक सम्बन्ध लम्बे समय तक खराब शायद ना रहे। भारत भी किसी और देश की नेपाल में बढ़ती दखलंदाज़ी से चिंतित होकर नरम पड़ेगा ही।

यदि नेपाल के नए संविधान के कुछ वैसे प्रावधानों की चर्चा करें जिसने मधेशियों और कुछ जनजातियों को आंदोलन करने को बाध्य किया है तो उसमें सबसे अहम वे प्रावधान हैं जिसके तरह ये लोग नेपाल में “Second Citizenship” का शिकार हो सकते हैं और इन सब को उच्च संवैधानिक पदों पर चयनित या नियुक्त होने से वंचित होना पड़ेगा। एक और प्रावधान जो इन आबादी को नए बनने वाले 7 प्रान्तों में अल्पसंख्यक बनाती है उसको लेकर चिंता है। ऐसे ही कुछ प्रावधान हैं जो नेपाल के तराई में रहने वाली करीब 35 फीसदी आबादी को समान अवसर प्रदान करने से रोकती है।


अब यदि ये प्रभावित लोग नेपाल के नए संविधान से संतुष्ट नहीं होने के कारण विरोध कर रहे हैं तो भारत को अपनी रणनीति को काफी संतुलित रखने की जरुरत है क्योंकि यदि 65 वर्षों बाद काफी जद्दोजहद कर नेपाल ने अपने नागरिकों के लिए अपना संविधान तैयार किया है तो उसमें अपने नागरिकों के हितों का ख्याल करने और सबको साथ लेकर चलने की संभावना दिख रही है। समय के साथ वे खुद अपने नागरिकों के लिए एक समावेशी अर्थव्यवस्था वाला देश बनाने में समर्थ हो सकता है क्योंकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकत्रंत्र भारत ने भी पिछले 68 सालों में अपने संविधान में 100 संशोधन किये हैं फिर भी यहाँ के सभी नागरिकों के हितों का संरक्षण नहीं हो पाया है।

नेपाल के नए संविधान में कुछ प्रावधान काफी प्रशंसनीय हैं जैसे नेपाली संसद और प्रान्तों में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण जबकि भारत में अभी भी यह होना बांकी है।

उल्लेखनीय है की नेपाल के पर्वतीय इलाकों में रहने वाली 35 फीसदी मूल नेपाली का अर्थव्यवस्था के अधिकांश हिस्सों पर कब्ज़ा है जिस कारण से भी ऐसे कुछ प्रावधानों को लेकर तराई के लोगों में गुस्सा है।

नेपाल में चीन की रुचि सिर्फ इतनी भर है कि उसके जरिये वह भारत पर सामरिक और मनोवैज्ञानिक दबाव बना सके। इसके अलावे चीन उसके आंतरिक मामलों में दखल नहीं बराबर देता है। कांग्रेस की सरकार पिछले दो दशक से नेपाल को लेकर उदासीन थी। परिणाम हुआ , वह धीरे धीरे चीन के प्रभाव में आने लगा। यह उसकी मजबूरी थी।

मोदी सरकार ने लगभग 20 सालों के बाद पिछले साल नेपाल की यात्रा कर एक अच्छी पहल की थी जिससे वर्षों से आपसी रिश्तों में जमी हुई बर्फ को थोड़ी उष्णता मिली थी और बर्फ पिघला भी था। दूसरा अच्छा काम मोदी ने नेपाल में आये भीषण भूकम्प में त्वरित पहल कर मदद पहुंचा कर की थी। अच्छा चल रहा था। लेकिन सारे किये कराये पर पानी तब फिर गया जब नेपाल संविधान निर्माण प्रक्रिया से गुजर रहा था। अब नेपाल ने भारत से छुटकारा पाने की कोशिश में चीन से पूरी तरह हाथ मिलाया और हिन्दुतान की ऊँगली तो तोड़ ही दी है।


जब सारी दुनिया में धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक लोग दिनों दिन बढ़ते ही चले जा रहे हैं तब यह भारत के दक्षिणपंथी नेपाल को हिन्दू राष्ट्र घोषित करवाने के लिए संविधान में प्रावधान के लिए दबाव बना रहे थे। नेपाल एक सम्प्रभु राष्ट्र है। आप एक मित्र की हैसियत से संविधान निर्माण में मदद करते , यह अलग बात थी। लेकिन आपने तो उसकी गर्दन नहीं दबोच सकते।


जिन प्रावधानों को शामिल करने के लिए उनसे सलाह मशविरा करना था उस पर तो आप मौन थे। और जिन बातों से आपको कुछ मतलब नहीं होना चाहिए था , उसको लेकर ऊँगली करने लगे। परिणाम ? आपके नियंत्रण से बाहर जा चूका है नेपाल। ओ पी शर्मा ओली वैसे भी भारत विरोधी तेवर के लिए जाने जाते हैं। 

विश्लेषकों का मानना है की अभी भारत को नेपाल में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति अबाध रूप से सुनिश्चित करने के पुरे प्रयास करने चाहिए। भारत से नेपाल जाने के करीब 16-17 मार्ग हैं लेकिन आंदोलन और विरोध प्रदर्शन केवल 6-7 रास्तों पर ही हो रहा है। इसलिए अन्य रास्तों से सामानों की अबाध आपूर्ति बहाल हो जिससे नेपाल में भारत विरोधी दल और संगठन को भारत के खिलाफ बोलने का मौका न मिले साथ ही कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात उचित मंच में रखने की रणनीति अपनाया जाये तो भारत-नेपाल व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध भी मधुर बने रहेंगे और तराई में रहने वाले नेपाली नागरिकों को भी समय के साथ अपने अधिकार मिल सकेंगे।

फिलहाल तो वर्तमान स्थिति को नरेन्द्र मोदी सरकार की विदेश नीति पर बड़ा धक्का ज़रूर माना जा रहा है।

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